About अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ

कुल-मिलाकर बात ये निकली कि आपका अधिकतम श्रम ही प्रार्थना है। आपका अधिकतम श्रम ही प्रार्थना है। जो अपने काम में निरंतर डूबा हुआ है, वो सच्चा प्रार्थी है। और जो अपने काम में निरंतर डूबा हुआ है, वो पाता है कि जैसे एक जादू, चमत्कार सा हो रहा है। क्या?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर। (फोटो-फ्रीपिक )।

धनराज ने यह भी बताया कि कृत्रिम घास को देखकर वे विज्ञान

पर अहम् माने कैसे कि, "हमने झूठ बोला था"? अहम् माने कैसे कि पुरानी ग़लती करी थी? अपने-आपको देखो न, तुम्हें ग़लती मानना अच्छा लगता है कभी? तो तुम ही तो अहम् हो। अहम् को नहीं अच्छा लगता कि मान ले कि ग़लती कर दी। सारी ग़लतियाँ किसने करी हैं?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं आपको करीब-करीब सात-आठ महीनों get more info से सुन रहा हूँ। करीब आपके बीस-पच्चीस कोर्सेज़ भी किये। मेरे तीन बच्चे हैं। एक अट्ठाइस साल का बेटा है, एक बाईस साल की और एक अठारह साल की बेटीयाँ है। तो आपसे मिलने के पहले मैं बच्चे से ये कह रहा था कि अट्ठाईस साल‌ के हो गये हो तो शादी कर लो। जब मैंने आपको सुना, अब उससे मैं ये बोलता हूँ, 'चाहो तो करना, इच्छा हो तो करना, नहीं तो मुझे दिक्कत नहीं है।'

जाने वाली जूनियर राष्ट्रीय हॉकी खेलने का अवसर मिला। उस समय धनराज सोलह वर्ष के

अहंकार के भाव में डूबे इंसान को न तो अपनी गलतियां दिखती हैं और न ही दूसरों में अच्छी बातें। और इसी चक्कर में कुछ लोग अपने आसपास के बहुत अनमोल लोग खो देते हैं। यह एक ऐसा अवगुण है जो इंसान को कभी महसूस नहीं होने देता कि जो वह कर रहा है, वह गलत है या सही। वह हमेशा अपनी धुन में सवार होता है और उसका व्यवहार एक अज्ञानी की तरह हो जाता है, जहां उसकी आंखों पर अज्ञानता की पट्टी बंधी होती है। स्वामी महावीर कहते हैं- ‘अज्ञानी आत्मा पाप करके भी अहंकार करती हैं।’ अहंकार हमें खुद की नजरों में तो मजबूत करता है, लेकिन दुनिया की नजरों में गिरा देता है। जब तक हमें इसकी अनुभूति होती है, तब तक हम विनाश की सीमा पार कर चुके होते हैं।

जो बातें सीधी हैं उनमें तुमको क्या नहीं समझ में आता?

सिखाने की कोशिश की होगी कि सफलता पाकर घमंड नहीं करना चाहिए अपितु और अधिक नम्र

हॉकी खेलता देख कर दाँतों तले उँगली दबा लेते थे। यही कारण था कि उन्हें हॉकी का

कुछ भी यूँही जाकर के इष्टदेव से, भगवान से मांगने लग जाना, प्रार्थना नहीं कहलाता। प्रार्थना करने के लिए पात्रता चाहिए। पात्रता ये कि सर्वप्रथम अपने दम पर जो मैं अधिकतम कर सकता था, वो मैंने करा। और झूठ नहीं बोल रहा हूँ, जान लगा दी है पूरी, इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं कर पा रहा। पूरी अपनी जान लगा दी है, सही दिशा में लगा दी है, अब थक रहा हूँ — ये स्वीकार करना ही प्रार्थना है।

आचार्य: कि सात्विक जीवन जियो, क्योंकि सात्विक जीवन जियोगे तो प्रकृति के चक्र से मुक्त हो सकते हो।

प्र: तो फिर अहम् स्वयं को बचाना क्यों चाहता है?

महापुरुष सदैव आम जन के प्रेरक रहे हैं।

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